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कला-साहित्य

क़िस्सा सारंगढ़: छत्तीसगढ़ के पहले दाऊदी बोहरा कुटुंब की कहानी

02 December 2025
क़िस्सा सारंगढ़:   छत्तीसगढ़ के पहले दाऊदी बोहरा कुटुंब की कहानी
मुख्य बातें:
छत्तीसगढ़ पहुंचने वाले शुरुआती दाऊदी बोहराओं में से एक मुल्ला इब्राहिम अली अपने परिवार के साथ सारंगढ़ पहुंच कर यहीं रच बस गए. इनका यहां आना तब हुआ जब सारंगढ़ के साथ-साथ देश के सामाजिक और व्यापारिक इतिहास में मील के नए पत्थर गड़ रहे थे. फिर एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में इब्राहिम अली की कहानी भी इस इतिहास के साथ पानी में शक्कर की तरह घुल गई.

एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में मुल्ला इब्राहिम अली के कुटुंब की कहानी इस इतिहास के साथ पानी में शक्कर की तरह घुली हुई है. वे छत्तीसगढ़ पहुंचने वाले शुरुआती दाऊदी बोहराओं में से एक थे. सवा सौ साल हो गए जब मुल्ला इब्राहिम अली अपने परिवार के साथ सारंगढ़ पहुंच कर यहीं रच बस गए थे. इनका यहां आना तब हुआ जब सारंगढ़ के साथ-साथ देश के सामाजिक और व्यापारिक इतिहास में मील के नए-नए पत्थर गड़ रहे थे.

दाऊदी बोहरा इस्माइली शिया मुसलमानों की एक उप-शाखा है, जिसके बड़े तबके की जड़ें गुजरातके काठियावाड़ और कच्छ जैसे इलाक़ों तक पहुंचती हैं. इसका आध्यात्मिक और प्रशासनिक नेतृत्व ‘दै’ई अल-मुतलक’ के हाथों में होता है. इन ‘धर्मगुरु’ या ‘दाई’ की एक लंबी परंपरा रही है.

वर्तमान दाई ‘सैयदना मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन साहिब तुस्सीफ़ुहु अल्लाह’ तिरेपनवें (53वें) दाई हैं. दाई का नेतृत्व धार्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक–सांस्कृतिक मामलों में भी निर्णायक होता है. समुदाय में अनुशासन,एकता और भाईचारा बनाए रखने में यह एक महत्त्वपूर्ण कारण साबित हुआ है.

छत्तीसगढ़ तक का सफर

इब्राहिम अली के पुरखे अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में काठियावाड़ इलाक़े में पड़े भीषण अकाल की स्थिति में तेरालीसवें दाई सैयदना अब्देअली सैफ़ुल्लाह के नेतृत्व में पलायन कर सूरत पहुंचे थे. दाई ने इन्हें जीविकोपार्जन के योग्य बनाने वाला प्रशिक्षण दिया.

मूल रूप से व्यापारियों और कारीगरों के इस समूह को आपसी सामंजस्य और सहयोग से आगे बढ़ने का मंत्र दिया. सादा जीवन, परोपकार और सामाजिक सौहार्द को न भूलनेवाली नसीहतें दीं.

सूरत पहुंचना समस्या का समाधान नहीं था. अगली लगभग पूरी सदी गुजरातियों के लिए बहुत कष्ट भरी रही. इन वर्षों में अंग्रेज़ों के व्यावसायिक लालच का दुष्परिणाम सूखे और अकाल के रूप में दिखने लगा था. आमदनी के स्रोत घटने पर सरकार ने टैक्स अनाप-शनाप बढ़ा दिए थे.

गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से लड़ाई हारते हज़ारों परिवार गुजरात छोड़ने के लिए मजबूर हुए थे. उन्नीसवीं सदी के ‘द ग्रेट इंडियन माइग्रेशन’ में गुजराती बड़ी संख्या में अंग्रेज़ों के सेन्ट्रल प्रॉविंस (सीपी) और बरार क्षेत्र में आया. छत्तीसगढ़ इसी क्षेत्र का हिस्सा था.

यहां ‘गुजराती’ शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त है जिनकी भाषा, बोली, खान-पान की पद्धतियां, जीवन-शैली आदि मिलती जुलती थीं. ये सारे परिस्थितियों के मारे, मजबूरी में, अपनी जड़ों से उखड़कर आजीविका की तलाश में यहां आए थे. अनेक के पास हुनर और सबके पास भविष्य के लिए सपने और विश्वास था.

इन गुजरातियों में जैन, वैष्णव हिंदू, कच्छी गुर्जर क्षत्रिय, पाटीदार, कच्छी मेमन, खोजा और पारसी के अलावा सूरत से आगे बढ़ने वाले बड़ी संख्या में दाऊदी बोहरा परिवार शामिल थे.

सूरत से आगे बढ़ने वाले बोहराओं को ताप्ती नदी के किनारे स्थित बुरहानपुर ने आकर्षित किया. मुगलों के समय से एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग पर स्थित यह स्थान व्यावसायिक समाज को आकर्षित करे यह स्वाभाविक था. साथ में मशहूर बोहरा संत सैयदी अब्दुल कादिर हकीमुद्दीन की ‘दरगाह -ए-हकीमी’ इसे और महत्वपूर्ण बनाती है. इंदौर भौगोलिक रूप से पास था. सो इंदौर होते हुए भोपाल की ओर भी बड़ी संख्या में पहुंचे.

दूसरे समूह के आगे बढ़ने की दिशा रेल लाइन और उसके साथ जुड़ी व्यावसायिक संभावनाओं ने तय की. उन्नीसवीं सदी में बड़ी संख्या में बोहरा नागपुर, अमरावती, अकोला जैसे कपास उत्पादक क्षेत्रों में बसे.

सन् 1882 में जब नागपुर से हावड़ा की दिशा में छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव तक मीटर गेज रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हुआ तब अन्य गुजरातियों की तरह दाऊदी बोहरा मुस्लिम परिवारों की पहली खेप के छत्तीसगढ़ पहुंचने की राह खुली.

छत्तीसगढ़ और संभावनाएं

पहला मुकाम बना राजनांदगांव. यह छत्तीसगढ़ का पहला औद्योगिक और संभावनाओं वाला नगर था. 1891 में राजा बलराम दास ने यहां बंगाल-नागपुर-कॉटन मिल की स्थापना की थी. यहां से बस्तर के जगदलपुर पहुंचने का मार्ग भी था. पहली खेप में अहमदजी भाई, कय्यूमी परिवार, इमदादी परिवार आदि के साथ संभवतः बाद में सारंगढ़ आने वाले इब्राहिम अली का परिवार भी शामिल था.

उन दिनों एक क़स्बे जैसे रायपुर का महत्व सिर्फ़ इतना था कि वहां अंग्रेज़ों का प्रशासनिक मुख्यालय था. कुछ फ़ौजी भी रहते थे. राजकुमार कॉलेज भी पहुंच चुका था. समाज का यह तबका अपनी ज़रूरत के सामानों की आपूर्ति के लिए कलकत्ता पर निर्भर था.

विलक्षण व्यवसायिक बुद्धि वाले बोहराओं ने रायपुर में अपने भविष्य की संभावनाओं का आकलन किया और 1898 में अहमदजी भाई के तीन बेटे बैलगाड़ियों में अपनी दुनिया लादकर रायपुर पहुंच गए. यहां उन्होंने अपने पिता ए. अहमदजी भाई के नाम से छत्तीसगढ़ का पहला ‘जनरल स्टोर’ शुरू किया जो अपने जमाने का ‘सुपर मार्केट’ था.

यहां दवाइयों से लेकर दैनंदिन उपयोग की हर चीज़ उपलब्ध थी. सबसे महत्वपूर्ण चीज़ थी केरोसिन – मिट्टी तेल जो तब तक रायपुर और राजनांदगांव से फैलकर अनेक स्थानों में प्रकाश के साथ-साथ खाने और पकाने के लिए इस्तेमाल होने लगा था.

 

आगे चलकर अंग्रेज़ों ने इन बेहद सफल और लोकप्रिय कारोबारी भाइयों में बड़े हाजी कीका भाई को ख़ान बहादुर और दूसरे इब्राहिम भाई को ख़ान साहब की उपाधि दी. तीसरे ताहिर भाई थे. ए.अहमदजी भाई फ़र्म को कारोबार के विस्तार के लिए नेटवर्क की ज़रूरत थी. इनके सुझाव पर समुदाय के विश्वसनीय साथी इब्राहिम अली रायगढ़ पहुंच गए.

सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह को बार बार आदमी भेज कर दो सौ किलोमीटर दूर रायपुर से केरोसिन, दवाइयां आदि मंगवाना असुविधाजनक लगने लगा था. इधर गिरिविलास पैलेस का निर्माण भी पूरा हो रहा था और उन्हें एक ऐसे सक्षम व्यक्ति की ज़रूरत थी जो हार्डवेयर के बारे में न केवल जानकारी रखता हो बल्कि जो बार-बार कलकत्ता जाकर आवश्यक सामग्री समय पर उपलब्ध कराने में भी क़ाबिल हो.

महल में फ्रिजिडेयर कंपनी के तीन रेफ़्रीजरेटर इस्तेमाल हो रहे थे जो केरोसिन से चलते थे. 1924 में सारंगढ़ राज्य ने अपने लिए बिजली का उत्पादन शुरू कर दिया. 35 किलोवॉट बिजली पैदा करने वाले विशाल जनरेटरों में जो तेल प्रयुक्त होता था वह केरोसिन के मुकाबले कम परिष्कृत होता था.

सड़क किनारे सागौन वृक्षों के खम्बों से लटके लैंपों के अलावा घरों में प्रकाश और खाना पकाने के स्टोव में केरोसिन का उपयोग तो हो ही रहा था. राजा जवाहिर सिंह की कारों के साथ-साथ स्टेट में ट्रक और बस की संख्या भी बढ़ने लगी थी.

इस पृष्ठभूमि में इब्राहिम अली का रायगढ़ से सारंगढ़ आना हुआ. यहां इब्राहिम अली और उनके बेटे क़ुतुब अली ने घर के सामने वाले हिस्से में फ़खरी स्टोर्स के नाम से एक दुकान खोली जहां केरोसिन और दवाइयों से लेकर वह सारा सामान मिलता था जो रायपुर में अहमद जी भाई की दुकान में मिलता था.

वे ए.अहमदजी भाई फ़र्म के एक तरह के एजेंट भी थे और बैलगाड़ी में सामान लादकर आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापार भी करते थे. रायगढ़ में रह गए बेटे केरोसिन समेत बाक़ी सामान रेल से उतारकर बैलगाड़ियों से रवाना करते. महानदी को नाव में पार कर सामान सारंगढ़ लाने का ज़िम्मा पिता इब्राहिम अली का होता.

तब तक सारंगढ़ के सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठित हो चुके सेठ इब्राहिम अली को 1923 में राजा जवाहिर सिंह ने सारंगढ़ म्युनिसिपल कमेटी का मेंबर नियुक्त किया.

 

उद्योगों की दस्तक

1920 और 30 के दशकों में भारतीय रसोईघरों में एक क्रांति की शुरुआत हुई थी. तीन दशकों के अंदर न केवल खाना पकाने का ईंधन और माध्यम दोनों बदलने जा रहे था इस परिवर्तन में छत्तीसगढ़ के बोहराओं के साथ सेठ इब्राहिम अली की महत्वपूर्ण भागीदारी होने जा रही था.

इसी 1920 के दशक में ब्रिटेन की बर्मा-ऑयल और अमरीका कंपनी शैल का विलय हुआ और नई कंपनी बर्मा-शैल अस्तित्व में आई. रेल के आने ने आयातित तेल का वितरण आसान किया था. लेकिन तेल पैक करने के साधन नहीं थे. टिन आयात होता था. इसका समाधान भी इसी 1920 के दशक में खोजा गया जब बर्मा-शैल ने जमशेदपुर के नए स्थापित इस्पात कारखाने के साथ मिलकर टिन प्लेट की एक अलग फैक्ट्री स्थापित की. टिन के कनस्तर और ड्रम भारत में बनने लगे.

बर्मा-शैल के समानांतर ही ब्रिटेन की लीवर ब्रदर्स की कहानी भी चल रही थी. यह कंपनी तब तब इंग्लैंड से लाइफबॉय, लक्स और विम साबुन आयात कर भारत में बेच रही थी. हॉलैंड की एक कंपनी का वनस्पति घी ‘डाडा’ आयात होकर बिक रहा.

जमशेदपुर की टिन प्लेट कंपनी ने लीवर ब्रदर्स के लिए नई संभावनाएं पैदा कीं. इन्होंने डाडा को ख़रीदा, नाम के बीच ‘लीवर’ का ‘ल’ जोड़ा और ‘डाल्डा’ के नाम से जमशेदपुर में बने टिन के गोल डिब्बों में भरकर देश भर में भेजने की तैयारी पूरी कर ली.

अगले कुछ ही सालों में तीसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन सीमेंट उद्योग में हुआ. देश में छोटे स्तर की दस फ़ैक्टरियां सीमेंट का उत्पादन कर रही थीं. मालिक थे टाटा और खटाऊ जैसे चार घराने. इन फैक्ट्री मालिकों ने इन फ़ैक्टरियों का विलय किया और एसोसिएटेड सीमेंट कंपनी (एसीसी) अस्तित्व में आई.

उन दिनों की मार्केटिंग के तरीकों के अनुसार प्रमुख नगरों में स्थापित बड़े डीलर और स्टॉकिस्ट के माध्यम से ही अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचा जाता था.

चाहे बर्मा-शैल हो या लीवर ब्रदर्स या एसीसी सीमॅट, किसी के पास बोहरा समुदाय के तब तक स्थापित हो चुके नेटवर्क का विकल्प नहीं था. बोहराओं की विशेषता यह है कि वे धार्मिक जीवन को आधुनिक जीवनशैली के साथ जोड़कर चलते हैं – न तो परंपरा से कटते हैं, न ही आधुनिकता से भागते हैं.

आपसी विश्वास, सहयोग और सामंजस्य से गुंथी इस बिरादरी ने इन कंपनियों का काम संभाल लिया. विश्वास-आधारित सामाजिक नेटवर्किंग इन्हे पूंजी व्यवस्था या भुगतान जैसे मामलों में चूक की संभावना से बचाकर रखती है.

आज भी मध्य भारत में बर्मा-शैल (भारत पेट्रोलियम), हिंदुस्तान लीवर और एसीसी सीमेंट के साथ हार्डवेयर जैसी भवन निर्माण में लगने वाली निर्माण सामग्रियों के लगभग सारे पुराने डीलर बोहरा समाज के ही पाए जाते हैं. रायपुर के ए. अहमद जी भाई के मार्फ़त पूरे छत्तीसगढ़ में माल पहुंचने लगा. पेट्रोल पंप शुरू हो गए. इनमें सारंगढ़ भी शामिल था.

फरवरी 1935 में इब्राहिम अली के बेटे क़ुतुब अली को बर्मा-शैल ने सारंगढ़ में पेट्रोल बेचने के लिए अपना एजेंट नियुक्त किया. महल में ही खपत थी सो यहीं डिपो भी बना. केरोसिन एक गैलन के डिब्बे में पीतल के ढक्कन से सीलबंद हो कर आता था. पेट्रोल बड़े ड्रम से गैलन के डिब्बे में निकालकर गाड़ियों में भरा जाता था.

विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिकी वायुसेना का बेस

दूसरे विश्व युद्ध मे यहां मौजूद हवाई पट्टी के कारण सारंगढ़ का महत्व अचानक बढ़ गया. खड़गपुर (पश्चिम बंगाल) में जहां आज आईआईटी है, वहां 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ों ने गिरफ़्तार किए गए सेनानियों को रखने और फांसी पर लटकाने के लिए जेल बनाई थी. वहीं विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिकी वायुसेना को अपना बेस बनाने के लिए स्थान दिया गया था.

उन दिनों खड़गपुर से जाने और आने वाले अमेरिकी विमान पेट्रोल भरने के लिए सारंगढ़ की हरदी हवाई पट्टी पर उतरा करते थे. सारंगढ़ की हवाई पट्टी की लंबाई अधिक थी और इसका आकार कुछ कुछ ऊंट की पीठ की तरह था – बीच में हल्का ऊंचा और दोनों सिरों पर ढलान. सतह मुरुम वाली किंतु बहुत मज़बूत थी.

भारत में डकोटा विमान लेकर अमेरिकी पहली बार आए थे और लैंडिंग के लिए सारंगढ़ बड़ी माकूल जगह थी. सो पेट्रोल भरने का स्थान सारंगढ़ तय हुआ. रायगढ़ तक तो पेट्रोल रेल के माध्यम से आ जाता था लेकिन वहां से उसे सारंगढ़ बैलगाड़ियों में लाया जाता था.

विमानों को सारा तेल उपलब्ध कराने का ज़िम्मा सेठ क़ुतुब अली का था. कुछ इनके अच्छे काम का नतीजा था और कुछ कंपनी की बढ़ती ज़रूरतों का, 1949 में सेठ क़ुतुब अली के बेटों, फ़खरुद्दीन और सैफ़ुद्दीन को सारंगढ़ में डीज़ल का डीलर नियुक्त किया गया. कोई पंद्रह साल पहले तक सारंगढ़ में यही एक पेट्रोल पंप था.

छत्तीसगढ़ में बोहराओं के हज़ार से अधिक घर हो चुके हैं. लेकिन सारंगढ़ में यह कुटुंब अकेला रहा.

(लेखक इतिहास-प्रेमी हैं, छत्तीसगढ़ में निवास करते हैं.)

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paresh 03 Dec, 2025 03:34 PM

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asdasdfsf 06 Dec, 2025 04:49 PM

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