खोजें

विचार

विश्वविद्यालय : में संवाद होगा या हिंसा

02 December 2025
विश्वविद्यालय : में संवाद होगा या हिंसा
मुख्य बातें:
पिछले दो दशकों में देश भर के शैक्षणिक परिसरों में हुई हिंसा में अधिकतर एबीवीपी के सदस्य क्यों शामिल पाए जाते हैं? इस छात्र संगठन को इस सवाल से जूझना चाहिए कि विचार के परिसर में उसने हिंसा को क्यों चुना है?

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की एक पदाधिकारी खबर में हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉक्टर भीमराव अंबेडकर कॉलेज के एक अध्यापक पर हमला करते हुए उनका वीडियो प्रसारित हो रहा है. वे छात्र संघ की पदाधिकारी हैं और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) की सदस्य हैं. यह सूचना अभी प्रासंगिक नहीं है कि एबीवीपी गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश बतलाने वाला संगठन है. यह भी नहीं कि अक्सर हम इसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों को गुरु-शिष्य परंपरा, गुरुकुल, आदि की वापसी की मांग करते हुए देखते हैं. इस वैचारिक लोक में आदर्श गुरु द्रोणाचार्य हैं या परशुराम. यह अभी प्रासंगिक नहीं है. अभी हम इस घटना और उसके बाद की प्रतिक्रियाओं को समझने की कोशिश करेंगे.

सबसे पहले जो नहीं है, उसकी बात कर लेनी चाहिए. छात्र संघ की पदाधिकारी ‘उच्च जाति’ की हैं और उन्होंने जिन अध्यापक पर हमला किया, वे ‘पिछड़ी जाति’ के हैं: यह तथ्य इस हिंसा की घटना को समझने के लिहाज़ से प्रासंगिक नहीं है. यह संभव नहीं लगता कि जाति के कारण उन्होंने यह हमला किया था. उसे इस हिंसा के कारक तत्त्व के रूप में पेश करना ईमानदारी नहीं है. दोनों की जाति कुछ और भी हो सकती थी और फिर भी हिंसा होती. जाति का तत्त्व ले आने पर हम इस हिंसा के संदर्भ से कट जाएंगे. फिर उसे समझना कठिन हो जाएगा.

यह भी विचारणीय है कि इसे हम गुरु पर की गई हिंसा कहकर फिर कहीं एक भावनात्मक अपील तो नहीं कर रहे हैं? अगर यह हिंसा किसी शिक्षकेतर अधिकारी के साथ होती तब हम क्या करते? क्या तब इसकी गंभीरता कम हो जाती? और तब क्या अध्यापक समुदाय में वैसा ही रोष देखा जाता?

यह प्रश्न इसलिए उठता है कि इस हिंसा के बाद अध्यापक तो आंदोलित हुए लेकिन विश्वविद्यालय के शेष हिस्सों में खामोशी ही रही. विद्यार्थी समूहों में भी एबीवीपी के विरोधी संगठनों ने इसकी निंदा की. लेकिन इसे माना जाएगा कि वे तो विरोधी हैं, वे यह करते ही. यह भी तर्क दिया जा सकता है कि हमला अध्यापक पर नहीं किया गया था, एक अधिकारी पर किया गया था. तर्क दिया जा सकता है कि वे अनुशासन समिति के प्रभारी थे, इस रूप में उनसे सवाल जवाब किया जा रहा था और उसमें बात बढ़ गई और उन पर हाथ उठ गया; उस वक्त वे अध्यापक नहीं थे.

अध्यापकों की परेशानी यह है कि उन्हें अध्यापन के अलावा कई प्रशासनिक जिम्मेदारियां उठानी पड़ती हैं. क्या दोनों भूमिकाएं एक दूसरे से नितांत भिन्न हैं? क्या जब वे प्रशासक की भूमिका में होते हैं तो अध्यापक नहीं रह जाते? अध्यापक होने के कारण ही तो वे यह अतिरिक्त काम करते हैं. इसमें उनका श्रम, समय, सब कुछ लगता है. फिर क्या वे इन कामों से इनकार कर दें?

हम यह भी जानते हैं कि यह कोई अनहोनी घटना नहीं. परिसर में ऐसी हिंसा की आशंका हमेशा बनी रहती है. छात्र नेता आम तौर पर आक्रामक होते हैं. इसका कारण शायद उनकी उम्र है या यह भी कि वे अपने समर्थकों पर अपना रुआब क़ायम करना चाहते हैं. इसलिए उन्हें हम प्रायः उग्र व्यवहार करते देखते हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के पिछले अध्यक्ष पर भी अभद्रता का इल्ज़ाम लगा है. इसका एक कारण यह भी है कि विश्वविद्यालय के सार्वजनिक जीवन में परस्पर विश्वास की कमी है. प्रशासन और छात्र के बीच विरोधात्मक रिश्ता माना जाता है. छात्र नेता सोचते हैं कि अगर उन्होंने विनम्रता से बात की तो उन्हें सुना नहीं जाएगा या दबा दिया जाएगा. प्रशासन भी अध्यापकों या छात्रों के प्रतिनिधियों को पहले संदेह की निगाह से ही देखता है.

हमारे सार्वजनिक जीवन में सुनने का धैर्य बहुत कम है. प्रशासक हमेशा जन प्रतिनिधियों को इस निगाह से देखते हैं कि वे ख़ामख़्वाह ख़लल पैदा करते हैं. वे उनसे पीछा छुड़ाने की हड़बड़ी में रहते हैं. यह नहीं माना जाता कि छात्र संघ या अध्यापक संघ सहयोगी हो सकते हैं. कई विश्वविद्यालयों में तो इनका अस्तित्व ही नहीं है. जहां है भी, वहां छात्रों या अध्यापकों के मामले में नीति बनाते वक्त या कोई निर्णय लेने के समय इनसे विचार विमर्श नहीं किया जाता. इसलिए इनकी भूमिका सहयोगी की नहीं, प्रतिपक्षी की रहती है.

जिन संस्थानों में निर्णय लेने वाले निकायों में छात्रों का प्रतिनिधित्व था, वहां भी अब उनकी अवहेलना हो रही है.

इसके साथ हिंसा की इस घटना के संदर्भ में यह पूछना होगा कि इसके बारे में छात्र संघ की क्या प्रतिक्रिया है. अभी तक संघ का कोई बयान नहीं आया है. छात्र संघ में एक पदाधिकारी भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (एनएसयूआई) के हैं, बाक़ी एबीवीपी के. हमने एबीवीपी से जुड़े छात्र संघ के अध्यक्ष का बयान देखा है. क्या वह पूरे छात्र संघ की समझ है?

हमने हिंसा करने वाली पदाधिकारी का बयान देखा. वे अपनी हिंसा के लिए अध्यापक वर्ग से माफ़ी मांग रही हैं लेकिन जिनके साथ उन्होंने हिंसा की, उनसे नहीं. यह माफ़ीनामा भी ईमानदार नहीं है क्योंकि वे अपनी हिंसा का औचित्य साबित कर रही हैं. वे अध्यापक पर नशे में होने और उनके साथ यौन दुर्व्यवहार की शिकायत कर रही हैं जिससे वे उत्तेजित हो गईं और उनका हाथ चल गया.

अध्यापक पर हिंसा की घटना का वीडियो साफ़ है. उससे कहीं भी उनकी बात प्रमाणित नहीं होती.

छात्र संघ के अध्यक्ष एबीवीपी के हैं. हिंसा के लिए आधे मन से क्षमा मांगते हुए वे अध्यापक पर और भी दूसरे आरोप लगा रहे हैं. वे सिगरेट पीते हैं, छात्रों के साथ उनका व्यवहार ठीक नहीं है, आदि. मानो यह सब कुछ इस हिंसा का कारण है और उससे वह कुछ उचित साबित हो जाती है.

छात्र संघ का संयुक्त बयान न आना चिंता का विषय होना चाहिए. छात्र संघ का एबीवीपी का मंच है या सारे छात्रों का प्रतिनिधि मंच है? क्यों सारे पदाधिकारी साथ बैठकर इस पर विचार नहीं कर सकते? क्यों हिंसा करने वाली पदाधिकारी के कृत्य से वह ख़ुद को अलग नहीं कर पा रहा?

शिक्षक संघ का रुख़ इस बार बेहतर था. संघ के अध्यक्ष को एबीवीपी की विचारधारा से जुड़ा माना जाता रहा है. वे इसे छिपाते भी नहीं. बल्कि वे ‘राष्ट्रविरोधी’ शिक्षकों के सफाए के समर्थक हैं. लेकिन संघ में दूसरे विचार वाले प्रतिनिधि भी हैं. संघ ने इस हिंसा की साफ़ शब्दों में निंदा की और इसे लेकर विरोध प्रदर्शन भी किया. इसका स्वागत किया जाना चाहिए.

शिक्षक संघ के अध्यक्ष भले ही हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी हों लेकिन वे सारे शिक्षकों के प्रतिनिधि हैं: जिन्हें वे राष्ट्रविरोधी, वामपंथी या धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, उनके भी. उनकी सुरक्षा और सम्मान की हिफ़ाज़त उनका ज़िम्मा है. इसलिए इस बार अपने भ्रातृ संगठन की सदस्य की हिंसा का विरोध करके वे शिक्षक संघ के अध्यक्ष के रूप में अपना कर्तव्य निभा रहे हैं.

शिक्षक संघ एकजुट है, यह अच्छी खबर है. लेकिन यह मात्र इस प्रकार की असाधारण अवस्था में ही नहीं, सामान्य तौर पर होना चाहिए. अगर अध्यापकों का एक समूह विचारधारा के कारण दूसरे समूह के ख़िलाफ़ हिंसा का प्रचार करेगा तो वह हिंसा कभी न कभी होगी ही. दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों में विचारधारा के आधार पर विभाजन से अकादमिक वातावरण पर प्रतिकूल असर पड़ता है. अध्यापक की पेशेवर पहचान पीछे चली जाती है. इसी वजह से हिंसा की इस घटना के बाद देखा गया कि अध्यापकों में से ही कुछ लोग हिंसा के लिए अध्यापक को ही ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश कर रहे हैं.

विश्वविद्यालय प्रशासन ने जांच समिति बैठा दी है. क्यों उस पर अध्यापकों के एक बड़े वर्ग को भरोसा नहीं हो पा रहा है? क्यों यह कहा जा रहा है कि अगर हिंसा करने वाली किसी दूसरे छात्र संगठन की होती तो पहले उस पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हो चुकी होती. पिछले सालों में एकाधिक बार इस प्रशासन ने जांच के पहले ही छात्रों पर कार्रवाई की है. फिर वह इस मामले में क्यों नहीं, यह सवाल पूछा जा रहा है.

प्रशासन ने पिछले सालों में हिंदुत्ववादी विचार के प्रति अपनी वफ़ादारी दिखलाकर अपनी विश्वसनीयता हो दी है.

हिंसा की इस घटना से एक बार और यह सवाल उठता है कि पिछले दो दशकों में देश भर के परिसरों में हुई हिंसा की घटनाओं में अधिकतर एबीवीपी के सदस्य क्यों शामिल पाए जाते हैं? विद्यार्थियों के ख़िलाफ़ और अध्यापकों के ख़िलाफ़?

इस संगठन को भी इस सवाल से जूझना ही चाहिए कि विचार के परिसर में उसकी भाषा हिंसा की क्यों हो? यह तो जानी हुई बात है कि जहां विचार कारगर नहीं होते, वहां उसकी भरपाई हिंसा से की जाती है. लेकिन परिसर में हिंसा अगर एक स्वीकृत भाषा और व्यवहार बन जाए तो फिर बुद्धि और विचार कहां शरण लें?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. )

  •  

अपनी राय दें