आइए, आज एक कल्पनाजनित प्रश्न से बात शुरू की जाए: किसी दिन महात्मा गांधी, लालबहादुर शास्त्री, सरदार वल्लभभाई पटेल, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्रदेव, अशफाक उल्लाह खां और इंदिरा गांधी वगैरह अचानक एक साथ सामने आ जाएं तो कुछ ‘धरते-उठाते’ बनेगा क्या?
कुछ दिन पहले एक मित्र से यही सवाल पूछ लिया तो उनका उत्तर था: अव्वल तो यही समझ में नहीं आएगा कि किस मुंह से उन सबका सामना करें, कैसे निगाहें मिलाएं उनसे. दूजे जहां तक ‘धरने-उठाने’ की बात है, वह तो उसी से बन सकता है, जिसमें इन हस्तियों के सारा कहा-सुना भुलाकर और उनकी दिखाई राह छोड़ आने के अपराधबोध से परे जाकर निर्लज्जतापूर्वक उन्हें तिलांजलि जैसी श्रद्धांजलि देने का नेताओं जैसा ‘माद्दा’ हो. अन्यथा तो उनसे अपने किए-धरे की क्षमा प्रार्थना करने में ही नानी याद आने लगेगी. इस प्रार्थना की पात्रता को लेकर गहराते संदेह मुंह से ठीक से बोल ही नहीं फूटने देंगे. इसलिए मन होगा कि उनसे सीधी मुलाकात टालने के लिए स्टोर रूमों से रखी उनकी तस्वीरों को झाड़-पोंछ कर उठा लाया और खुद उनकी ओट में हो जाया जाए.
मित्र का जवाब अपनी जगह रहे, लेकिन आप चाहें तो पूछ सकते हैं कि यह भला कैसी कल्पना है और भोली है या इसके पीछे कहावतों वाले उस खाली दिमाग की भूमिका है, जो खाली होते ही प्रायः शैतान का घर बन जाता है?
आपके सवाल के जवाब में सच कहूं तो इसमें सबसे ज्यादा भूमिका बीतने को आए इस अक्टूबर महीने की है, जो आश्चर्यजनक रूप से इन सारी विभूतियों कहें या महापुरुषों की इस संसार में आवाजाही के सिलसिले से जुड़ा हुआ है. ऐसी सामूहिकता से कि जब भी यह महीना आता है, मन-मस्तिष्क में बरबस ऐसे भाव आने ही लगते हैं कि वे सब के सब एक साथ सामने आ खड़े हुए हैं. उनमें किसी के आगमन की बेला है तो कोई अलविदा कहने को आतुर है.
वह क्या है कि इन सभी की जयंतियां या कि पुण्यतिथियां इसी महीने में हैं- लोकनायक जयप्रकाश नारायण की तो जयंती और पुण्यतिथि दोनों. वे 1902 में इसी महीने की 11 तारीख को पैदा हुए और 1979 में अंतिम सांस भी इसी महीने की 08 तारीख को ली- अपने एक और जन्मदिन से महज तीन दिन पहले.
अब यह तो खैर, सुविदित ही है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री दो अक्टूबर को अपना जन्मदिन एक दूसरे के साथ साझा करते हैं. बापू 1869 में इसी दिन पैदा हुए तो शास्त्री 1904 में.
साफ है कि दोनों के जन्म के बीच एक पीढ़ी से कुछ ज्यादा का ही फर्क था और इसीलिए जानकारों द्वारा प्रायः कहा जाता है कि बापू के न रहने पर शास्त्री ने उनके विचारों को अगली पीढ़ियों में अंतरित करने में बड़ी भूमिका निभाई. लेकिन अगर आप समझते हैं कि एक ही दिन दो महापुरुषों की जयंतियों के संयोग का इस महीने का यह कोई इकलौता मामला है, तो आप गलती पर हैं.
22 अक्टूबर को (एक तुक्कड़ कवि के अनुसार जिसमें दो-दो दो अक्टूबर समाहित हैं) ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन एक्शन के 19 दिसंबर, 1927 को फैजाबाद जेल में शहीद कर दिए गये क्रांतिकारी अशफाकउल्लाह खां और सरयू के उस पार गोंडा जिले में जन्मे जनकवि अदम गोंडवी अपनी-अपनी जयंतियां साझा करते हैं.
अशफाक ने 1900 में इस तारीख को तब जन्म लिया था, जब उन्नीसवीं शताब्दी पूर्णता की ओर बढ़ रही थी, जबकि अदम गोंडवी ने 1947 में देश की आजादी के दो महीनों बाद. अशफाक जहां अपनी शहादत के वक्त तक बेकरार रहे कि ‘जानें किस दिन हिंदोस्तान आजाद मुल्क कहलायेगा’ तो अदम को यावतजीवन इसका गिला रहा कि वह आजाद कहलाया भी तो उसकी आजादी अनेक असुविधाजनक सवालों से पीछा नहीं छुड़ा पाई, देश के सौ में सत्तर आदमी नाशाद ही बने रहे. इसलिए अपने एक शे’र में उन्होंने पूछा भी कि सौ में सत्तर आदमी जब देश में नाशाद है, दिल पे रखके हाथ कहिए देश यह आजाद है?
इन दोनों के बीच एक और संयोग यह कि अदम 2011 में अशफाक के शहादत दिवस (19 दिसंबर) से मात्र एक दिन पहले 18 दिसंबर को सू-ए-अदम की ओर गये.
समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया की बात करें, जो 23 मार्च को अपना जन्मदिन शहीद-ए-आजम भगत सिंह के शहादत दिवस के साथ साझा करते हैं और उनकी शहादत के बाद यह कहकर अपना जन्मदिन नहीं मनाया करते थे कि अब यह भगत सिंह का शहादत दिवस हो गया है, तो उन्होंने भी 1967 में इसी अक्टूबर की बारह तारीख को इस संसार को अलविदा कहा था.
वह ऐसा समय था, जब वे संभावनाओं से पूरी तरह भरे हुए थे और उनके मित्र राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ‘दिनकर’ उनमें जवाहरलाल नेहरू के बाद के भारत का समाजवादी प्रधानमंत्री देख रहे थे.
इस महीने की आखिरी, 31 तारीख तो 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अंगरक्षकों द्वारा उनके निवास पर गोलियों से भूनकर उनकी निर्मम हत्या से पहले तक भारतीय इतिहास की एक बेहद चमकीली तारीख हुआ करती थी.
होती भी क्यों नहीं, वह लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल व भारतीय समाजवाद के पितामह आचार्य नरेंद्र देव दोनों की साझा जयंती थी. भारतरत्न सरदार वल्लभभाई पटेल 1875 में इसी तारीख को बाम्बे प्रेसीडेंसी के अंतर्गत नडियाद के एक पाटीदार किसान परिवार में पैदा हुए थे, जबकि आचार्य नरेंद्रदेव 1889 में उत्तर प्रदेश स्थित सीतापुर में.
लेकिन 1984 में तथाकथित खालिस्तान के लिए पगलाई हुई हिंसा ने इसे इंदिरा गांधी के खून से रंगकर इसकी सारी चमक पर कालिख पोत दी.
बात अधूरी रहेगी, जब तक यह न बताया जाए कि यह महीना सिर्फ नेताओं या महापुरुषों की ही आवाजाही का महीना नहीं है, अनेक नामचीन साहित्यकारों के जन्म और निधन का भी है.
मिसाल के तौर पर, हिंदी साहित्य के इतिहास व आलोचना को व्यवस्थित रूप प्रदान करने की अपनी पहलों के लिए प्रतिष्ठित व समादृत निबंधकार, कोशकार व अनुवादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल 1884 में 04 अक्टूबर को इस धरती पर आए, जबकि रामविलास शर्मा 1912 में 10 अक्टूबर को. इसी तरह कथाकार शैलेश मटियानी 1931 में 14 अक्टूबर को. फ़िल्मों के गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी 1919 में एक अक्टूबर को, जबकि कम लिखकर भी बहुत मकबूल हुए उर्दू के प्रगतिशील शायर असरारुल हक मजाज़ (लखनवी) 1911 में 19 अक्टूबर को.
इन सबके विपरीत भगवतीचरण वर्मा, प्रेमचंद, यशपाल जैन, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, निर्मल वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, श्रीलाल शुक्ल, राजेन्द्र यादव, अमृता प्रीतम, इस्मत चुग़ताई, साहिर लुधियानवी और शैल चतुर्वेदी जैसी साहित्यिक शख्सियतों ने इस महीने को दुनिया को अलविदा कहने के लिए चुना. भगवतीचरण वर्मा 05 अक्टूबर,1981 को जबकि प्रेमचंद 08 अक्टूबर, 1936 को और यशपाल जैन 10 अक्टूबर, 2000 को यह संसार छोड़ गये, जबकि निराला 15 अक्टूबर, 1961 को, निर्मल वर्मा 25 अक्टूबर, 2005 को, डॉ. नगेन्द्र 27 अक्टूबर, 1999 को, श्रीलाल शुक्ल 28 अक्टूबर, 2011 को और राजेन्द्र यादव 29 अक्टूबर, 2013 को.
यहां यह भी गौरतलब है कि प्रेमचंद अपनी पुण्यतिथि लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ साझा करते हैं, जिनका 1979 में आठ अक्टूबर को ही निधन हुआ.
लोकनायक की ही तरह ‘मलिका-ए-गजल’ कहलाने वाली बेगम अख्तर भी इसी महीने दुनिया में आईं और दुनिया से गईं. 1914 में सात अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन फैजाबाद जिले के ऐतिहासिक भदरसा कस्बे में उनका जन्म हुआ और 1974 में 30 अक्टूबर को गुजरात के अहमदाबाद नगर में निधन.
इन सबके अतिरिक्त इस्मत चुग़ताई 24 अक्टूबर, 1991 को, साहिर लुधियानवी 25 अक्टूबर, 1980 को और शैल चतुर्वेदी 29 अक्टूबर, 2007 को स्मृतिशेष हुए.
निस्संदेह, इतनी बड़ी शख्सियतों की आवाजाही का इस महीने का इतिहास किसी भी दूसरे महीने के लिए ईर्ष्या का कारण हो सकता है. अकारण नहीं कि कई लोग बातों-बातों में इसे ‘हस्तियों का महीना’ भी कह देते हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)






