इज़रायल के तीन प्रबल सहयोगी– ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा – गाज़ा में उसके नरसंहारक अभियान के कारण उसके खिलाफ़ ‘ठोस कार्यवाही’ की धमकी देते हैं, जबकि भारत हथियार और ड्रोन की आपूर्ति जारी रखता है. यह तथ्य केवल उन्हें आश्चर्यचकित करेगा जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद से लगातार भारतीय सरकारों द्वारा फिलिस्तीनी मुद्दे को लेकर अटूट समर्थन की औपचारिक बयानबाज़ियों को बहुत ही आसानी से स्वीकार कर लिया है.
जहां भारत ने नए उत्तर-औपनिवेशिक राज्य के रूप में फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के हित में साम्राज्यवाद-विरोधी एकजुटता की भावना से शुरुआत की, वहीं उसने आरंभ से ही ज़ायोनवादी सत्ता की आंशिक मान्यता और कभी-कभी उसकी वकालत के बीजों को भी संजोए रखा. साथ ही पश्चिम के साथ संबंध सुधारने, या मध्य-पूर्व के देशों में अधिक प्रभाव फैलाकर तथा उनसे समर्थन प्राप्त करके पाकिस्तान का मुकाबला करने की कूटनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी सक्रिय रहीं, जो समय के साथ अधिक महत्वपूर्ण हो गईं.
मोदी सरकार के आगमन से काफी पहले, सोवियत संघ के पतन और भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद, यह ढुलमुल संबंध इज़रायल के साथ अधिक खुले सहयोग में बदल गया. हालांकि, पिछले कुछ दशकों में नव-उदारवादी हिंदुत्व के बढ़ते कदमों के साथ इज़रायल के अपराधों की प्रतीकात्मक निंदा भी तेज़ी से पुरानी बात होती जा रही है, क्योंकि भारतीय और ज़ायोनी राज्यों के बीच अधिकाधिक वैचारिक जुड़ाव और आर्थिक व सैन्य सहयोग बढ़ रहा है.
निस्संदेह इस पश्चिमी तिकड़ी ने भी इज़रायल को भौतिक सहायता देना बंद नहीं किया है– जिसमें हथियारों की बिक्री शामिल है. लेकिन औपचारिक बयानों में कितना बड़ा अंतर आ गया है!
19 मई 2025 को जारी उनके संयुक्त बयान में इज़रायल पर अंतरराष्ट्रीय क़ानून तोड़ने का आरोप तो नहीं लगाया गया, लेकिन यह जरूर कहा गया कि गाज़ा में इज़रायल की सैन्य कार्रवाई ‘पूरी तरह असंगत’ है और ‘हम उस वक्त चुपचाप खड़े नहीं रहेंगे जब नेतन्याहू सरकार इन घिनौनी कार्रवाइयों को अंजाम दे रही है.’ इसके अलावा, उनके बयान आगे कहता है कि ‘हम आगे की कार्रवाई करने में संकोच नहीं करेंगे, जिसमें लक्षित पाबंदियां भी शामिल हैं’.
17 जनवरी 2025 को इज़रायल ने हमास के साथ युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर किए थे लेकिन 18 मार्च 2025 को उसने उस युद्धविराम को तोड़ते हुए हवाई हमले फिर से शुरू किए. नेतन्याहू ने कुछ घंटे बाद घोषणा की कि इज़रायल ने ‘पूरी ताक़त से युद्ध फिर से शुरू कर दिया है.’
दो दिन बाद आए भारत के आधिकारिक बयान में हमास के साथ इज़रायली समझौते के उल्लंघन के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया और, ढेर सारी प्रभावहीन घोषणाओं के अलावा, अत्यंत सावधानी बरती गई कि कहीं ऐसा कुछ न निकल जाए जिसमें नाम लेकर इज़रायल की आलोचना (निंदा की बात तो छोड़ ही दीजिए) हो.
गाज़ा में क्या हो रहा है, इसका सबसे क़रीबी उल्लेख यह था कि ‘भारत ने जनवरी 2025 के बंधकों की रिहाई और गाज़ा में युद्धविराम के समझौते का स्वागत किया. भारत ने मानवीय सहायता की सुरक्षित, समयानुकूल और निरंतर आपूर्ति की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है’ (विदेश मंत्रालय 2025). भारत के संयुक्त राष्ट्र में स्थायी प्रतिनिधि पी. हरीश ने इस वर्ष 30 अप्रैल को सुरक्षा परिषद की बहस में फिर से युद्धविराम की आवश्यकता, बंधकों की रिहाई और मानवीय सहायता की अबाध आपूर्ति के बारे में वही घिसे-पिटे बयान दोहराए, लेकिन यह सुनिश्चित किया कि (हालांकि 20 महीने बीत चुके हैं) 7 अक्टूबर 2023 के आतंकवादी हमले की फिर से निंदा करें.
मोदी सरकार के घिनौने नैतिक दोहरे मानदंडों को जो चीज़ उजागर करती है, वह यह है कि तब से अब तक उसने कभी भी गाज़ा में इज़रायल की किसी भी कार्रवाई को आतंकवादी कृत्य नहीं कहा; नरसंहारक कहने की बात तो छोड़ दीजिए, उसने न ही नागरिकों की सामूहिक हत्याओं को आतंकवादी अभियान कहा. हालांकि सही है कि भारत ने नरसंहार सम्मेलन (Genocide Convention) पर हस्ताक्षर किए हैं और उसे अनुमोदित भी किया है, लेकिन मोदी सरकार ने दक्षिण अफ़्रीका की पहल पर, जिसके तहत अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (जिसका भारत सदस्य है) से गाज़ा में इज़रायल के नरसंहार की जांच करने और उस पर निर्णय लेने का आह्वान किया, न तो स्वीकृति दी और न ही उस पर टिप्पणी की.
इतना ही नहीं. कनाडा, अमेरिका और जर्मनी सहित कई यूरोपीय देशों में फिलिस्तीनियों और ख़ास तौर पर गाज़ावासियों के समर्थन में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक प्रदर्शन हुए हैं. विश्व के तथाकथित सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में, नागरिक समाज की प्रतिक्रिया तुलना के लिहाज़ से कहीं अधिक सीमित रही है. इसका एक कारण किसी न किसी रूप में दमन का भय है—भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) शासित राज्यों और दिल्ली में जब भी कार्रवाई हुई तो पुलिस ने उन पर रोक लगा दिया. यह हिंदू राष्ट्रवादी ताक़तों (या हिंदुत्व) द्वारा फिलिस्तीन को तथाकथित रूप से ‘हिंदू-विरोधी’ और इसलिए ‘राष्ट्र-विरोधी’ मुद्दा बताकर इस्लामोफ़ोबिया पनपाने में उनकी सफलता का भी प्रमाण है.
वर्तमान लोकसभा में मौजूद लगभग 41 दलों में से 31 ने 7 अक्टूबर 2023 के बाद से इज़रायल-गाज़ा के बीच जो हो रहा है, उस पर एक शब्द भी नहीं बोला है. क्यों कोई विदेश नीति का मुद्दा उठाने की ज़हमत उठाए, ख़ासकर ऐसा मुद्दा जिसे बहुसंख्यक हिंदू समुदाय और मतदाताओं के कई हिस्से ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ मान सकते हैं. यह तथ्य कि यह नजरिया अधिकांश राजनीतिक समूहों में मौजूद है, अपने आप में इस बात का संकेत है कि हिंदुत्व की भावनाएं नागरिक समाज में कितनी व्यापक और गहरी पैठ बना चुकी हैं. यहां तक कि गैर-भाजपा शासित राज्यों में भी, जैसे कांग्रेस शासित कर्नाटक में, फिलिस्तीन के समर्थन में सार्वजनिक प्रदर्शन करने के प्रयासों को सीमित कर दिया गया, भले ही इसकी बर्बरता भाजपा शासित उत्तर प्रदेश (जो आबादी के लिहाज़ से दुनिया के देशों में पांचवें स्थान पर आता है) जैसी नहीं रही हो.
उस भारत का क्या हुआ जो दक्षिण का एक अग्रणी देश माना जाता था, और जो फिलिस्तीनी हितों के लिए अपने कथित दीर्घकालिक और निरंतर समर्थन के लिए जाना जाता था? हां, अतीत में भारत ने फिलिस्तीनी हितों का समर्थन किया था, लेकिन वह कभी भी उतना सुसंगत या सिद्धांतनिष्ठ नहीं रहा जितना उसकी सरकारें और उसके समर्थक समूह दिखाने की कोशिश करते रहे हैं. हां, भाजपा के सत्ता (1998–2004 और 2014 से अब तक) में आने से पहले ही, अन्य सरकारें, किसी न किसी हद तक, इज़रायल के साथ गहरे संबंधों की खातिर फिलिस्तीनी हितों का सौदा करने के लिए तैयार थीं.
और हां, भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों ने भारत और इज़रायल के बीच संबंधों को काफ़ी तेज़ किया है क्योंकि भाजपा, उसके कैडर-आधारित पितृ संगठन, आरएसएस (राष्ट्रीय सेवक संघ) और उसके कई सहयोगी संगठनों के मूल में निहित हिंदुत्व ने हमेशा ज़ायोनवाद के साथ एक ख़ास वैचारिक समानता महसूस किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा जून 2024 में लगातार तीसरी बार पांच वर्षीय कार्यकाल के लिए सत्ता में चुनी गई.
यह स्पष्ट रूपरेखा भारत में सरकारी बदलावों की ऐतिहासिक दिशा को दर्शाती है, और यहां हम जो मुख्य विवरण प्रस्तुत करेंगे, वह इन केंद्रीय शासकीय परिवर्तनों के समानांतर भारत-इज़रायल-फिलिस्तीन संबंधों के विकास को रेखांकित करेगा. भारत के चार अन्य पड़ोसियों—श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश—के साथ इज़रायल के संबंधों की प्रकृति का भी संक्षेप में परीक्षण किया जाएगा.
गांधी और नेहरू
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के बाद, गांधी और नेहरू जैसे नेताओं का दूसरे जगह हो रहे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्षों से भी जुड़ाव रहता था. 1936 का महान विद्रोह, जो 1939 तक चला, के बाद फिलिस्तीनी प्रतिरोध के लिए समर्थन स्वाभाविक रूप से बढ़ा. इसके अलावा, गांधी ने अंग्रेजों का सर्वाधिक प्रभावी रूप से सामना करने के सिलसिले में हिंदू-मुस्लिम एकता के निर्माण को अपने दृष्टिकोण की कुंजी माना था.
यहां तक कि कांग्रेस पार्टी ने फिलिस्तीन के समर्थन में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग जैसे अग्रणी मुस्लिम संगठनों का साथ दिया था. लेकिन यहूदी राष्ट्रवाद के उदय और फिलिस्तीन में यहूदी बहुसंख्यक राज्य स्थापित करने की ज़ायोनीवादी महत्वाकांक्षा के बारे में क्या हो रहा था?
इसके कई प्रमुख पैरोकारों ने इस लक्ष्य के लिए गांधी का समर्थन हासिल करने की कोशिश की. गांधी के दक्षिण अफ्रीकी प्रवास (1893-1914) के दौरान हरमन कैलेनबाख और हेनरी पोलाक जैसे कई यहूदियों के साथ उनके घनिष्ठ राजनीतिक और व्यक्तिगत संबंध थे, जो आगे चलकर ज़ायोनी उद्देश्य के प्रभाव में चले गए. नतीजतन वे गांधी को साथ लाने के लिए अनौपचारिक दूत बन गए.
1931 में गांधी लंदन में भारत में संभावित राजनीतिक सुधारों पर चर्चा करने के लिए द्वितीय गोलमेज़ सम्मेलन में शामिल हुए, जहां उन्होंने ज्यूइश क्रॉनिकल साप्ताहिक को एक साक्षात्कार दिया. उस साक्षात्कार में उन्होंने ज़ायोनवाद या ‘ज़ायोन की ओर वापसी’ को आंतरिक आध्यात्मिक संतोष की तलाश के रूप में बताया, जो कहीं भी हो सकता है, और वह ‘फिलिस्तीन पर फिर से कब्जा करने’ के भौगोलिक दावे से अलग है, जहां प्रवास के लिए अरबों की स्वीकृति आवश्यक है.
हालांकि, 1937 के मध्य में कैलनबाख बॉम्बे (अब मुंबई) के बाहर एक आश्रम में गांधी से मिले और वहां एक महीने से अधिक समय तक रहकर उन्होंने गांधी को राज़ी कर लिया कि ज़ायोनी आध्यात्मिक संतुष्टि को फिलिस्तीन में बसने से अलग नहीं किया जा सकता. इस घटना ने गांधी की सोच में दुविधा पैदा कर दी, जो बाद तक बनी रही, भले ही उन्होंने फिर दोहराया कि बैलफ़ोर घोषणा इसको उचित नहीं ठहरा सकती और ऐसा तब ही किया जाए जब ‘अरब राय इसके लिए तैयार हो’ .
आज भारत में वामपंथी पार्टियां और उनके बुद्धिजीवी, जो दावा करते हैं कि गांधी कभी दुविधा में नहीं थे, हमेशा उनके 26 नवंबर 1938 के हरिजन अखबार में लिखे संपादकीय को उद्धृत करते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि फिलिस्तीन अरबों का उतना ही है जितना इंग्लैंड अंग्रेज़ों का और फ्रांस फ्रांसीसियों का. हाल तक भारत-इज़रायल-फिलिस्तीन संबंधों की ऐतिहासिक दिशा पर टिप्पणी और लेखन करने वाले अधिकांश बौद्धिकों का यही प्रमुख और मूलतः निर्विवाद दृष्टिकोण रहा है. भाजपा के सत्ता में आने के साथ, उससे जुड़े कुछ बुद्धिजीवी ‘राष्ट्रपिता’ की विरासत का पुनःव्याख्यान करना चाहते हैं ताकि आज की प्रबल इज़रायल-परस्त नीति को अधिक विश्वसनीयता दी जा सके.
मार्च 1946 में गांधी ने विश्व यहूदी कांग्रेस के सदस्य मिस्टर हॉनिक और ब्रिटेन की लेबर पार्टी के यहूदी सांसद एस. सिल्वरमैन से मुलाक़ात की. इस चर्चा में गांधी से एक प्रश्न पूछा गया और उनके निजी सचिव प्यारे लाल नैयर द्वारा विधिवत दर्ज किया गया—‘क्या हम यह मान लें कि आप यहूदियों के लिए राष्ट्रीय आवासीय स्थल स्थापित करने की हमारी आकांक्षा से सहानुभूति रखते हैं?’
गांधी का उत्तर दर्ज नहीं किया गया. वास्तव में 1948 में गांधी की मृत्यु के बाद प्यारे लाल ने फिलिस्तीन पर कुछ कागाज़ात चुनिंदा रूप से नष्ट कर दिए. लेकिन सिल्वरमैन ने बाद में अमेरिकी पत्रकार लुई फ़िशर को यह उत्तर बताया, जिन्होंने इस चर्चा के लगभग तीन महीने बाद गांधी से संपर्क किया और इस उत्तर की सत्यता की पुष्टि की.
गांधी ने कहा था, ‘मैंने सिल्वरमैन से कहा कि फिलिस्तीन में यहूदियों का मामला मज़बूत है. यदि अरबों का दावा है, तो यहूदियों का उनसे पहले का दावा भी है.’
बाद में हरिजन के 21 जुलाई के अंक में गांधी ने कहा, ‘यह सच है कि मैंने इस विषय पर श्री लुई फ़िशर के साथ लंबी बातचीत के दौरान कुछ ऐसा ही कहा था.’ फिर उन्होंने ज़ायोनिस्टों के बारे में कहा कि उन्हें आतंकवाद छोड़ देना चाहिए और पूरी तरह अहिंसक होना चाहिए. ‘वे फिलिस्तीन में ज़बरन पैठ बनाने के लिए आतंकवाद का सहारा क्यों लें? यदि वे अहिंसा के बेजोड़ हथियार को अपनाएं… तो उनका मामला दुनिया का मामला होगा… यह सबसे अच्छा और सबसे उज्ज्वल होगा.’
फिर भी गांधी की समग्र स्थिति का सबसे संतुलित आकलन यह है कि वे फिलिस्तीन को अरब नियंत्रण के तहत एक संप्रभु और स्वतंत्र राज्य बनने का समर्थन करते थे. साथ ही वहां जाने की यहूदी इच्छा को स्वाभाविक मानते थे और उनके सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा की बात करते थे. बाद में क्या वे निरंतर यहूदी प्रवास का विरोध किया या नहीं यह ज्ञात नहीं है, लेकिन यह संभव है कि वे यह शर्त जोड़ते कि किसी भी प्रवास पर अरबों की सहमति हो.
नेहरू भी गांधी की तरह ही द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले और उसके दौरान यहूदियों के साथ हुए व्यवहार को देखते हुए उनके प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे. लेकिन उनकी यह सहानुभूति, ब्रिटिश साम्राज्य के साथ मिलकर ज़ायोनी राज्य की स्थापना के प्रयासों का समर्थन करने तक नहीं पहुंची.
मई 1947 में फिलिस्तीन के सवाल पर गठित संयुक्त राष्ट्र की विशेष समिति (UNSCOP) के 11 सदस्यों में भारत भी शामिल था और इसने ब्रिटेन द्वारा ज़िम्मेदारी सौंपे जाने पर महासभा को अपनी रिपोर्ट भी प्रस्तुत की थी. तब भारत (ईरान और यूगोस्लाविया के साथ) ने संघीय एकता बनाए रखने की योजना पेश की थी. इतना ही नहीं, उसने बहुमत की उस योजना के विरुद्ध मतदान भी किया था, जिसमें फिलिस्तीन का विभाजन प्रस्तावित था. इससे यहूदियों को (जो तब लगभग 30% आबादी थे) 55% क्षेत्र मिल जाता, लेकिन अधिकतर बोझ फिलिस्तीनियों पर आता. वैसे भी यह योजना केवल सिफ़ारिश थी और उसे थोपा नहीं जाना था.
इसके अलावा, फिलिस्तीनी पक्ष ने इसे अस्वीकार किया था, क्योंकि यह पूर्ण स्वतंत्रता देने की प्रतिबद्धता का उल्लंघन करती थी. फिर भी, 1950 में नेहरू ने इज़रायल को मान्यता दे दी, जबकि विभाजन-योजना के विपरीत उसने तब ज़बरन 78% क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया था. सितंबर 1950 में ज्यूइश एजेंसी ने बॉम्बे (अब मुंबई) में एक आव्रजन कार्यालय भी खोला, क्योंकि लगभग 60,000 (बेने और बगदादी) यहूदी भारत में आकर प्रवास कर रहे थे या 18वीं–19वीं शताब्दियों में यहूदी धर्म अपना लिया था. यह कार्यालय बाद में व्यापार कार्यालय में और फिर 1953 में एक छोटे वाणिज्य दूतावास में बदल गया.
पहला, 1947–49 के नक़बे के बाद ऐसी कोई वास्तविक स्वतंत्र और प्रतिनिधि राजनीतिक इकाई नहीं थी जो वास्तव में फिलिस्तीनी हितों को प्राथमिकता देता. दूसरा, विभाजन के बाद भारत ने पाकिस्तान को मान्यता दी थी, तो इज़रायल को क्यों नहीं? ईरान और तुर्की जैसे दो मुस्लिम बहुल देशों ने पहले ही इज़रायल को मान्यता दे दी थी. इसके अलावा, मई 1949 में इज़रायल को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य स्वीकार कर लिया गया और प्रवेश की शर्त के रूप में उसने विस्थापित फिलिस्तीनियों के ‘वापसी के अधिकार’ पर प्रस्ताव 194 को स्वीकार किया, जिसे उसने कभी लागू नहीं किया.
तीसरा, सोवियत संघ मई 1948 में इज़रायल को कानूनी मान्यता देने वाला पहला देश था, इसलिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), जो तब मुख्य विपक्षी शक्ति थी, ने नेहरू का विरोध नहीं किया. आंशिक रूप से अरब भावनाओं का ध्यान रखते हुए, उन्होंने पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करने से परहेज़ किया. यह व्यावहारिक यथार्थवाद था जिसने पहले नेहरू को मान्यता देने के लिए प्रेरित किया और फिर उन्हें पीछे रोके रखा.
1956 में इजरायल, यूके, फ्रांस द्वारा शुरू किए गए स्वेज आक्रमण और युद्ध के बाद, भारत के इजरायल के साथ गहरे संबंधों की ओर बढ़ने का कोई सवाल ही नहीं था. यह राजनयिक ठहराव नेहरू के शासन के आगे 1964–84 की पूरी अवधि तक चला, जिसमें 1967 और 1973 के इज़रायल-अरब युद्ध और 1982 में लेबनान पर इज़रायल का आक्रमण भी शामिल है.
हालांकि, इस राजनयिक ठहराव के बावजूद भारत और इज़रायल के बीच पर्दे के पीछे उल्लेखनीय संपर्क बने रहे. मई 1964 में नेहरू का निधन हो गया, लेकिन 1962 के चीन युद्ध के दौरान भारत को इज़रायल से भारी तोप (मोर्टर) और गोला-बारूद मिला और 1965 तथा 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्धों में उससे और हथियार ख़रीदे.
उग्र-दक्षिणपंथ का उदय
जून 1996 में 13 दलों वाली एक ग़ैर-कांग्रेसी और ग़ैर-भाजपाई गठबंधन, संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी, लेकिन मार्च 1998 तक गिर गई. इसी दौरान इजरायल को मानवरहित हवाई वाहन (यूएवी), ग्रीन पाइन रडार प्रणाली और लंबी दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलों की आपूर्ति के लिए आपसी समझौते हुए.
इसके बाद 1998-99 में पहली बार भाजपा-नेतृत्व वाली सरकार बनी, जो फिर 1999 से 2004 तक पांच साल के कार्यकाल के लिए चुनी गई, दोनों ही बार प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित हुईं. 2003 में उनके शासनकाल के दौरान ही एरियल शेरोन के रूप में पहली बार किसी इज़रायली प्रधानमंत्री की भारत में आधिकारिक यात्रा हुई थी.
इससे पहले 1999 में पाकिस्तान के साथ हुए कारगिल युद्ध में, इज़रायल ने भारत को सैन्य सहायता की थी, जबकि वाशिंगटन ने इस्लामाबाद पर दबाव डालकर उसकी सेना को पीछे हटने को मजबूर किया था. मई 1998 में भारत के परमाणु परीक्षणों पर अमेरिका का शुरुआती गुस्सा जल्द ही शांत हो गया और भारत-इज़रायल-अमेरिका के बीच एक नया सामरिक गठबंधन बनने लगा.
26 नवंबर, 2008 को मुंबई में पाकिस्तान स्थित दो इस्लामी समूहों द्वारा किए गए आतंकी हमले के बाद, इज़रायल ने भारत में निर्दिष्ट केंद्रीय निगरानी प्रणाली (Central Monitoring System) के तहत एक निगरानी ढांचा तयार करने में मदद की, जिसने लक्षित निगरानी से लेकर जन-व्यापक निगरानी तक की क्षमता विकसित की (एस्सा 2023: 48). नवंबर 2008 के हमलों के समय और उसके तुरंत बाद, उच्च-स्तरीय राजनीतिक संवादों के अलावा, इज़रायल ने खुफिया अधिकारी, पैरामेडिक्स, रिजर्विस्टों की एक टीम और कुछ स्वयंसेवकों को भेजा, जिन्होंने सलाह, सामग्री सहायता के साथ-साथ इस बात की आलोचना की कि इस तरह के आतंकवादी खतरों से निपटने के लिए भारत की तैयारियां कितनी अपर्याप्त थीं.
इस अवसर पर इज़रायली कर्मियों की उपस्थिति ने एक व्यापक आम सहमति गढ़ने में मदद की कि भारत की कुछ गंभीर कमियां रही हैं जिनके लिए इज़रायल की विशेष निपुणता की आवश्यकता है. यह कहा गया कि अब गुणात्मक रूप से एक नया और गहरा गठजोड़ बन चुका था (Machold 2024).
2003 से 2013 के बीच भारत इज़रायल का सबसे बड़ा हथियार ग्राहक बन चुका था. फरवरी 2014 में, जब आम चुनाव कुछ महीनों दूर थे और कांग्रेस अब भी सत्ता में थी, तब एक औपचारिक समझौता हुआ (जिसे मई 2014 में मोदी की चुनावी जीत के बाद लागू किया गया) जिसके तहत भारतीय पुलिस और सुरक्षा कर्मियों को ‘आतंकवाद-रोधी’, ‘भीड़ नियंत्रण’ और ‘सीमा प्रबंधन’ के प्रशिक्षण के लिए इज़रायल भेजा जाना था. इसका अर्थ यह था कि देश के भीतर खासकर पूर्वोत्तर और कश्मीर जैसे विद्रोहग्रस्त इलाक़ों से निपटने के तौर-तरीके सिखाए जाएं.
फ़िलिस्तीनियों और कश्मीरियों दोनों को राजनीतिक आत्मनिर्णय का अधिकार नकारते हुए, भारी सैन्य उपस्थिति ने कश्मीर को भी उसी तरह एक स्थायी सैन्य कब्ज़े का क्षेत्र बना दिया जैसा कि फ़िलिस्तीन के कब्ज़ाए गए क्षेत्रों (Occupied Territories) में है. फ़िलिस्तीनियों और कश्मीरी मुसलमानों, दोनों के लिए हिंसा एक सामान्य और वैधानिक रूप से जायज़ ठहराई गई प्रक्रिया है, जिसमें सबसे अलोकतांत्रिक और दमनकारी क़ानूनों का इस्तेमाल किया जाता है. कश्मीर में हिंदुओं के लिए बस्तियां बनाने का काम उनकी ज़मीन पर अधिक कब्ज़ा करके किया जा रहा है, और केंद्र सरकार की अलग-अलग परियोजनाओं के लिए भी. हिंदू-मुसलमानों को अलग करने का यह ढांचा इज़रायल की वेस्ट बैंक नीति से मेल खाता है (Essa 2022).
ज़ायोनवाद के प्रति हिंदुत्व की वैचारिक रिश्तेदारी का भाव, मोदी युग में आकर इजरायल द्वारा अधिकृत क्षेत्रों में फिलिस्तीनी ‘शत्रु’ के साथ किए गए व्यवहार के प्रति अधिक स्पष्ट प्रशंसा और वास्तव में अनुकरण की भावना में बदल गया.
मोदी युग
जून 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी ने जल्दी दिखा दिया कि वे इज़रायल को अलग ढंग से देखेंगे. 2017 में इज़रायल की तीन दिवसीय आधिकारिक यात्रा करने वाले मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. तीन दिनों की इस यात्रा में दोनों देशों के संबंधों को औपचारिक रूप से ‘रणनीतिक साझेदारी’ का दर्जा दिया गया. उन्होंने फिलिस्तीनी नेतृत्व से मुलाक़ात नहीं करके उस परंपरा को भी तोड़ा जिसमें भारतीय नेता हमेशा फिलिस्तीनी नेतृत्व से मुलाक़ात करते थे. जानबूझकर संदेश देने की कोशिश की गई कि फिलिस्तीनी प्रश्न अब अप्रासंगिक हो गया है और अब भारत-इज़रायल संबंधों का सवाल है.
न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, इसी समय मोदी सरकार ने पेगासस खरीद के लिए एक समझौता किया था. यह एक सैन्य स्तर का स्पायवेयर को एक इज़रायली फर्म द्वारा केवल सरकारों को बेचा जाता है.
2018 में टोरंटो विश्वविद्यालय के सिटिज़न लैब ने पाया कि इसका इस्तेमाल भारत सहित 45 देशों में मैलवेयर इंस्टॉल करने और निगरानी करने के लिए किया जा रहा था. 2021 में इसका इस्तेमाल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, मोदी शासन की आलोचना करने वाले पत्रकारों और कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी सहित कम से कम 300 भारतीयों पर अवैध रूप से किया जा रहा था. भारत सरकार द्वारा न तो कभी इसको नकारा और न ही इसको स्वीकार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्पष्ट उत्तर मांगने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया.
10 फरवरी 2018 को मोदी ने रामल्लाह के तीन घंटे के दौरे में फिलिस्तीनी प्राधिकरण (पीए) के राष्ट्रपति महमूद अब्बास से मुलाक़ात की. वहां लंबे समय से चला आ रहा आधिकारिक भारतीय घोषणा-पत्र को दोहराया गया, जिसमें ‘संप्रभु और स्वतंत्र’ फिलिस्तीनी राज्य के समर्थन की बात कही गई. लेकिन पहली बार ‘एकीकृत’ फिलिस्तीनी राज्य और पूर्वी येरुशलम को उसकी राजधानी बताने का ज़िक्र नहीं किया गया.
निहितार्थ स्पष्ट था, नई दिल्ली भविष्य में दो-राज्य समाधान को, जैसा इज़रायल चाहेगा, आराम से स्वीकार कर लेगी. इज़रायली हिंसा, चाहे गाज़ा की नाकेबंदी हो या पश्चिमी तट पर अवैध बस्तियों का विस्तार, भारत इससे न तो नैतिक रूप से परेशान था, न ही राजनीतिक रूप से. 2020 के अब्राहम समझौते का नई दिल्ली ने सकारात्मक कदम के रूप में स्वागत किया.
14 जुलाई 2022 को I2U2 (भारत-इज़रायल-यूएई-अमेरिका) समूह स्थापित हुआ ताकि संयुक्त आर्थिक उद्देश्य पूरे किए जा सकें. कुछ ही घंटों बाद हाइफ़ा बंदरगाह अडानी पोर्ट्स को बेच दिया गया, ताकि इज़रायली कंपनी गाडोर (Gador) के साथ मिलकर इसका संचालन किया जा सके.
7 अक्टूबर 2023 को हमास के हमले के बाद मोदी सरकार ने निंदा की और इज़रायल को पूर्ण समर्थन देने का आश्वासन दिया. गाजा में जनसंहार के बीच मोदी सरकार कमजोर और अस्पष्ट भाषा में युद्धविराम व मानवीय सहायता की बातें करती रही हैं. भारतीय कंपनियों ने, सरकार की सहमति से इज़रायल को 900 हर्मीस (Hermes) ड्रोन और गोला-बारूद उपलब्ध कराया. इज़रायल के निर्माण क्षेत्र में फिलिस्तीनी श्रमिकों की जगह लेने के लिए हजारों भारतीय मज़दूरों को भेजे.
नवीनतम योजना यह है कि संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं को बाहर रखा जाए और केवल कुछ चुनिंदा वितरण केंद्रों पर न्यूनतम सहायता दी जाए. इस योजना का उद्देश्य गाज़ावासियों की भोजन, स्वास्थ्य और आश्रय जैसी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना नहीं है. असल नीयत यह है कि इज़रायल के सहयोगियों को शांत रखा जाए ताकि वे ‘बेहतर अंतरात्मा’ के साथ चुप रहे, जबकि जातीय सफ़ाए की प्रक्रिया जारी रहे. इस तरह स्थितियां इस क़दर बनी रहें कि गाज़ावासी और अधिक ‘स्वैच्छिक पलायन’ का विकल्प चुनें और दूसरे देशों में बस जाएं.
यहां ट्रंप प्रशासन भी अपनी भूमिका निभा रहा है और कई देशों जैसे- सूडान, सोमालिया, सोमालीलैंड (विभाजित क्षेत्र), लीबिया, इंडोनेशिया आदि से संपर्क कर रहा है संभवतः इन्हें वित्तीय और दूसरे प्रलोभन दिए जा रहे हैं. पश्चिमी तट में अवैध बस्तियां और अधिक बढ़ाई जाएंगी और फिलिस्तीनियों पर नियंत्रण का ;प्रबंधन’ करने के लिए उनके नेताओं पर दमन और रिश्वतखोरी की रणनीतियां तेज की जाएगी.
तेल अवीव और वॉशिंगटन के लिए ‘जोर्डन विकल्प’ का एक विशेष संस्करण भी विचार के लिए है. इसका मतलब यह होगा कि उनके शासकों के लिए डंडा और गाजर की समान रणनीति लागू करके जोर्डन को आंशिक रूप से या पूरी तरह फिलिस्तीनियों की नई बसावट के रूप में तैयार किया जाए. संक्षेप में, यह सब उस योजना का हिस्सा है जिसमें शासकों को खरीदकर या दबाकर वेस्ट बैंक के लोगों को बाहर भेज देना शामिल है. फिर भी, चाहे योजनाएं कितनी भी चालाकी से बुनी जाएं, गाज़ा और वेस्ट बैंक दोनों के लिए इन इज़रायली महत्वाकांक्षाओं के बीच अभिलाषा और वास्तविकता के बीच एक विशाल खाई मौजूद है.
(यह मूल रूप से टीएनआई पर प्रकाशित लेख का संपादित प्रारूप है.)





