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विचार

बिहार: प्रशांत किशोर की पदयात्रा लंबी रही, लेकिन चुनावी ज़मीन छोटी पड़ गई

02 December 2025
बिहार: प्रशांत किशोर की पदयात्रा लंबी रही, लेकिन चुनावी ज़मीन छोटी पड़ गई
मुख्य बातें:
'बिहार बदलाव यात्रा' के दौरान प्रशांत किशोर. (फोटो: पीटीआई)

पिछले एक दशक में प्रशांत किशोर ने स्वयं को एक प्रभावशाली चुनावी रणनीतिकार के रूप में स्थापित किया है. उन्होंने चुनावी प्रचार के पारंपरिक तौर-तरीकों को बदला और संचार के छोटे टूल्स को मुख्यधारा की राजनीति में स्थापित किया. आज कई लोग आई-पैक के स्कूल से निकलकर चुनावी रणनीति और सोशल मीडिया कैंपेन की दुनिया में सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं.

यहां तक कि जिन्होंने ‘पीके’ के साथ सीधे काम नहीं किया, वे भी उनका नाम लेकर अपनी विश्वसनीयता और प्रभाव पैदा करते हैं. इस क्षेत्र के कई स्टार्टअप का श्रेय प्रशांत किशोर को जाता है क्योंकि उन्होंने राजनीतिक दलों के सामने यह साबित किया कि चुनावी रणनीति और कैंपेनिंग किसी भी आधुनिक चुनाव के लिए अनिवार्य है.

दूसरा पहलू उनका राजनीतिक प्रयोग जन सुराज है. प्रशांत इसे एक ‘प्रयास’ कहते हैं.

पिछले तीन वर्षों में उन्होंने बिहार में लंबी पदयात्रा की और अपने पूरे कैंपेन को रोजगार, पलायन और शिक्षा जैसे मूल मुद्दों पर केंद्रित रखा. उन्होंने इन तीनों मुद्दों को बिहार के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया. बिहार के लोग ही नहीं, बल्कि बिहार से बाहर रहने वाली हस्तियां जैसे मनोज वाजपेयी और पंकज त्रिपाठी  भी उनकी बातों से जुड़ने लगे.

लेकिन जहां प्रशांत किशोर की बातों ने लोगों को प्रभावित किया, चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आए, जन सुराज की कैंपेनिंग अचानक एक निगेटिव लाइन पर शिफ्ट हो गई.

प्रशांत किशोर ने तेजस्वी यादव को नौवीं फेल बताने से लेकर सम्राट चौधरी की 10वीं की डिग्री का ज़िक्र किया. धीरे-धीरे इन नेताओं के जातीय समुदाय के एक बड़े हिस्से ने प्रशांत किशोर और जन सुराज से दूरी बनानी शुरू कर दी.

यही नहीं, शराबबंदी को 15 मिनट के अंदर हटाने की उनकी चुनावी घोषणा ने महिलाओं को एक गहरी दुविधा में डाल दिया, जहां पीके और जन सुराज दोनों की सामाजिक छवि को गहरी क्षति मिली.

प्रशांत के कुछ मीडिया बयान भी जनता को भ्रमित करने लगे. ‘जन सुराज अर्श पर या फर्श पर’ वाला बयान यह संदेश दे गया कि प्रशांत किशोर 10 से कम सीटों से भी संतुष्ट हो सकते हैं. इसके बाद उनका यह वक्तव्य ‘यदि हमारी 2–4 सीटें भी आएं, तो मैं कहूंगा कि आप (विधायक) लोग जहां जाना चाहें, जाएं.’

इस तरह चुनाव से पहले नेता का अपने विधायकों को ‘ओपन ऑप्शन’ देने जैसा बयान पीके की राजनीतिक प्रतिबद्धता को संदिग्ध बना गया.

243 सीटों पर टिकट वितरण हुआ, जिनमें से 238 उम्मीदवारों का नामांकन सफल रहा. लेकिन चुनाव परिणाम में 233 की जमानत ज़ब्त हो गई.

जन सुराज खुद को ‘ए टू ज़ेड’ की पार्टी बताती रही लेकिन जमीन पर इस नैरेटिव को प्रशांत और जन सुराज ने ठीक नहीं उतारा. जन सुराज की सबसे बड़ी संरचनात्मक कमजोरी उसका संगठन मॉडल रहा.

प्रशांत किशोर ने जन सुराज का संगठन वेतनभोगी कर्मचारियों के सहारे खड़ा किया.  वेतन पर निर्भर कार्यकर्ता माहौल तो बना सकते हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता, निष्ठा और वैचारिक जड़ें बहुत कमजोर रहती हैं. इसका स्पष्ट संकेत इस तथ्य से मिलता है कि जन सुराज को 68 सीटों पर नोटा से भी कम वोट प्राप्त हुए.

बिहार विधानसभा चुनाव में जन सुराज का कुल वोट प्रतिशत भी लगभग 3.44% के आसपास है, जो एक नए राजनीतिक प्रयोग के लिए स्वीकार्य है लेकिन प्रशांत किशोर के दावों के सामने बेहद मामूली लग रहा है.

प्रशांत किशोर ने बिहार चुनाव में एक ऐसे हाई-रिस्क मॉडल का प्रयोग किया, जिसमें पूरा कैंपेन एक लोकप्रिय चेहरे और केंद्रीय नैरेटिव पर टिका था. यह मॉडल विज्ञापन और राजनीतिक ब्रांडिंग की दुनिया में चलता है, लेकिन जमीनी राजनीति में यह तभी सफल होता है जब उसके साथ मजबूत स्थानीय नेतृत्व और सामाजिक गठबंधन खड़े हों.

जन सुराज के पास ये दोनों नहीं थे, इसलिए चुनाव में प्रशांत के ‘रियल मुद्दे’ रील पर बढ़त बनाए रहे लेकिन मतगणना में बहुत पीछे छूट गए.

प्रशांत किशोर के जनसुराज की कहानी केवल एक रणनीतिकार से नेता बने व्यक्ति की विफलता की कहानी नहीं है. यह भारतीय चुनावों की भी कहानी है. जहां ब्रांडिंग और नैरेटिव की राजनीति की सीमाएं तय होती हैं. ज़मीन पर संगठन, सामाजिक समीकरण और मतदाता का विश्वास ही निर्णायक रहता है.

(डॉ. अन्वेषण दी. द. उ. गोरखपुर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर (पत्रकारिता विभाग) हैं.)

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