बिहार के हालिया विधानसभा चुनावों में एनडीए की भारी जीत ने राज्य की राजनीति का एक नया सामाजिक समीकरण तय किया है- नया एमवाई. यानी महिला + युवा. यह गठजोड़ सिर्फ़ एक चुनावी रणनीति नहीं था, यह उस बदलती सामाजिक आकांक्षा का संकेत है जो यह बताती है कि बिहार की महिलाएं अब केवल वोटर नहीं, चुनाव की निर्णायक शक्ति बन चुकी हैं.
लेकिन जब उत्सव खत्म होता है, सियासत का मुश्किल दौर शुरू होता है. अब सवाल यह है कि क्या नई सरकार उन महिलाओं के जीवन में वास्तविक परिवर्तन ला पाएगी, जिनके भरोसे वह सत्ता तक पहुंची है?
काम बढ़ा है, कमाई नहीं
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) जैसे राष्ट्रीय सर्वेक्षण बताते हैं कि बिहार में महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ी है. 2017–18 में यह संख्या 4% के करीब थी, जो 2023–24 में बढ़कर लगभग 30% हो गई.
यह बदलाव उत्साहजनक लगता है, मगर इसके भीतर की सच्चाई उतनी ही कड़वी है.
- ग्रामीण बिहार में काम करने वाली 85% महिलाएं स्वरोजगार कर रही हैं- ज़्यादातर फ़ैमिली हेल्पर्स हैं यानी वे जो किसी पारिवारिक व्यवसाय, खेती या उद्यम में बिना किसी भुगतान के काम करती हैं और उसी परिवार या घर में रहती हैं.
- शहरों में भी अनपेड हेल्पर्स यानी बिना किसी भुगतान के घरों का काम करने वालों) की हिस्सेदारी 3% से बढ़कर 29% हो गई है.
- इसके विपरीत, वेतन वाला काम लगातार घट रहा है.
इसका मतलब साफ़ है- महिलाओं के काम का बढ़ना आर्थिक शक्ति में नहीं बदल रहा है. वे काम तो कर रही हैं, लेकिन न उनके पास तय आय है, ना सामाजिक सुरक्षा.
शिक्षा: सबसे बड़ी बाधा, जिसे बिहार अब तक पार नहीं कर पाया
अगर महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 35% आरक्षण का लाभ लेना है- जो बिहार सरकार ने वादे के तौर पर दिया है- तो शिक्षा सबसे बड़ी शर्त है. लेकिन वास्तविक तस्वीर अभी भी भयावह है. पीएलएफएस 2023-24 के अनुसार:
- ग्रामीण महिलाओं में 45% अब भी निरक्षर हैं.
- शहरी महिलाओं में भी 27% पढ़-लिख नहीं पातीं.
- ग्रेजुएट महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ़ 3.1% और शहरों में 13.4% हैं.
उच्च शिक्षा में पहुंच की कमी के साथ-साथ विषयों का चुनाव भी चुनौती है.
बिहार की लड़कियां स्टेम (STEM- Science, Technology, Engineering, and Mathematics) जैसे विषयों से दूर हो रही हैं– वे ही विषय जो प्रतियोगी परीक्षाओं और सरकारी नौकरियों की राह बनाते हैं. सवाल यह है- जब योग्य महिलाएं ही कम होंगी, तो आरक्षण किसे मिलेगा?
समय की सबसे बड़ी कसौटी: अनपेड केयर वर्क
महिलाओं के काम ना कर पाने की सबसे बड़ी वजह नौकरी की कमी नहीं समय की कमी है, खासकर अनपेड केयर वर्क- जैसे, बच्चों की देखभाल, बुजुर्गों की सेवा, घर की सफाई, खाना बनाना, आदि
टाइम यूज़ सर्वे 2024 दिखाता है कि बिहार की महिलाएं पुरुषों की तुलना में रोज़ 5 घंटे ज़्यादा घरेलू और देखभाल संबंधी काम करती हैं. इस वजह से:
- 70% महिलाएं बाहर काम नहीं कर पातीं,
- चाइल्ड केयर और एल्डरली केयर जैसी सुविधाएं लगभग नहीं के बराबर हैं,
- सुरक्षित परिवहन की कमी नौकरी के विकल्प और सीमित कर देती है.
आरक्षण नौकरी तक ले जा सकता है, लेकिन नौकरी करने के लिए समय और सहूलियत चाहिए, जो महिलाओं को नहीं मिल रही.
नई सरकार क्या कर सकती है?
बिहार के मतदाताओं ने इस बार सिर्फ़ सरकार नहीं चुनी. उन्होंने बदलाव की उम्मीद चुनी है. अगर नई सरकार इस उम्मीद पर खरी उतरना चाहती है, तो उसे तीन मोर्चों पर गंभीरता से काम करना होगा:
- शिक्षा और हुनर या स्किल बढ़ाने में बड़ा निवेश
- लड़कियों के लिए स्टेम और प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग
- डिग्री से आगे विभिन्न तरह के कौशल, जैसे डिजिटल, एकाउंटिंग, अंग्रेजी बोलने पर निवेश
- महिलाओं के अवैतनिक कामों के बोझ को कम करना
- पंचायत स्तर पर बच्चों की देखभाल की व्यवस्था अथवा क्रेच या डे केयर सेंटर
- महिलाओं के लिए सुरक्षित और रात तक उपलब्ध सार्वजनिक परिवहन
- कामकाजी महिलाओं के लिए छात्रावास और ट्रांज़िट हॉस्टल
- नौकरी का वादा नहीं, नौकरी तक पहुंच का अधिकार
35% आरक्षण तभी सार्थक होगा जब
- योग्य महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़े,
- भर्ती प्रक्रियाएं पारदर्शी हों,
- और नियुक्ति के बाद महिलाओं को कार्यस्थल पर सुरक्षा और समान अवसर मिलें.
बिहार की राजनीति का असली इम्तिहान अब शुरू होता है
एनडीए की जीत का श्रेय चाहे जिस समीकरण को दिया जाए, सच्चाई यह है कि बिहार की महिलाएं अब सिर्फ़ संख्या नहीं, निर्णयकारी शक्ति हैं. वे किसी नारे, योजना या वादे से नहीं, परिणामों से प्रभावित होती हैं.
इसलिए बिहार की आधी आबादी का भरोसा जीतना अभी बाकी है. अगर यह सरकार सच में ‘नई एमवाई’ को सम्मान देना चाहती है, तो उसे साबित करना होगा कि महिलाओं का वोट सिर्फ़ सत्ता में पहुंचने का साधन नहीं, नीतियों की दिशा तय करने वाली असली ताकत है.
(ज्योति ठाकुर नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (NCAER) में एसोसिएट फेलो हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं, जिनका उनके संस्थान से कोई संबंध नहीं है. )






